अति महत्वकांक्षी होते क्षेत्रीय दल, सौदेबाजी की राह पर
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कुछ दिन पहले पांच राज्यों के आए चुनावी नतीजों ने आगामी लोकसभा चुनाव के गणित को बदलकर रख दिया है. इन चुनावी परिणामों के बाद क्षेत्रीय और छोटे राजनीतिक दलों की बड़ी और राष्ट्रीय पार्टीयों से सौदेबाजी बढ़ गई है. कांग्रेस पहले से ही इन दलों के साथ लोकसभा चुनावों में उतरने की योजना पर काम कर रही है. तो बीजेपी ने बिहार में नीतीश कुमार को अपने बराबर सीटें देकर ये साफ कर दिया है, कि वो भी गठवंधन की ही निति के रास्ते पर चलेगी. दूसरी तरफ ममता बनर्जी के.चंद्रशेखर राव के साथ मिलकर फेडरल फ्रंट बनाने की तैयारी में लगी हैं. फेडरल फ्रंट को भले ही राष्ट्रीय मोर्चा जैसी सफलता हाथ नहीं लगे लेकिन छोटी पार्टीयों की भूमिका को राष्ट्रीय स्तर पर अब नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. हालांकि क्षेत्रीय दलों की ज़मीन अभी इतनी भी मजबूत नहीं हुई है कि वो एचडी देवेगौड़ा, चौधरी चरण सिंह, चंद्रशेखर और आइके गुजराल को पीएम बनाने जैसी स्थिति को दोहरा सके. लेकिन 2019 में पूर्ण बहुमत की संभावना को छोटे दल कुचल जरुर सकते हैं. यदी 2019 के लोकसभा चुनावों में किसी को पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं होता है. उस स्थिति में इन दलों का दबदबा राष्ट्रीय स्थल पर कायम हो सकता है. यूपी में सपा-बसपा यदी एक साथ लोकसभा का चुनाव लड़ती हैं. तो ताजा आकड़ों के अनुसार बीजेपी को पीछे छोड़ देंगी. एक साथ आने का एक फायदा ये भी होगा कि चुनाव के बाद ये दोनों दल बड़ी सौदेबाजी करने में सफल हो सकती हैं.
बिहार में भाजपा ने 2 सांसदो वाली जदयू को अपनी जीती हुईं पांच सीटें दे दी हैं. जिसका संकेत साफ है की एनडीए ने जमीनी हकीकत को परख कर अपने प्लान बी को एक्टीवेट कर उसपर काम शुरु कर दिया है. क्योंकि बात जब लोजपा के साथ भी अटकी तो सारा त्याग बीजेपी को ही करना पड़ा. उधर महाराष्ट्र में शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे भी बीजेपी पर हमलावर होकर सौदेबाजी का राग अलापने लगे हैं. शिवसेना और बीजेपी के बीच लंबे अरसे से मनमुटाव चल रहा है. केंद्र और महाराष्ट्र में सरकार में शामिल होते हुए भी शिवसेना बीजेपी के नेतृत्व को आंख दिखा रही है. शायद इसिलिए भारतीय समाज पार्टी जैसे छोटे दल भी अपनी राजनीतिक हैसियत से ज्याद वसूलने की जुगत में लगे हैं. अगर बीजेपी ने अपने सहयोगी दलों को सीमा से अधिक सीटें दे दी तो ये साफ हो जाएगा की छोटे दल भी अपनी स्थिति से अधिक सौदेबादी करने में सफल हो रहे हैं. इन सौदेबाजी वाले दलों को यदी 2019 में सत्ता की चाभी मिल गई तो तय है की जनता के अच्छे दिन एक बार फिर से लद जाएंगे. इसमें अब जनता को वोट देने में अपनी समझदारी का परिचय देना होगा.
सभी सौदेबाजी वाले दलों में से बसपा- सीपीएम ही राष्ट्रीय दल हैं. जिनका आधार बाकी के दलों से अधिक है. बाकी सभी दल अपने अपने राज्य में सिमटे हुए हैं. वाम दलों को साथ परेशानी ये है की उनका आधार मुख्य रुप से केवल केरल में सिमट गया है. जिसकी वजह से उन्हें बाकी के राज्यों में उसे क्षेत्रीय पार्टीयों से अलग राह पर चलना मुश्किल हो रहा है. जिसकी वजह से वो चुनाव के बाद गठबंधन पर जोर दे रही है. लेकिन बाकी के कई क्षेत्रीय दल चुनाव से पहले ही गठबंधन बनाने की कवायद में लगे हैं. जिसका एक जमावड़ा केसीआर तैयार कर रहे हैं. जिसमें ममता बनर्जी,नवीन पटनायक जैसे नेताओं को जोड़ने की कोशिश शुरु है. इसमें ममता बनर्जी काफी सक्रिय भी नजर आ रही हैं. जिससे ये साफ हो रहा है की क्षेत्रीय दल अब बेहद ही महत्वकांक्षी हो गए हैं. हालांकि फेडरल फ्रंट तभी शक्ल ले सकता है जब यूपी की बड़ी पार्टीयां सपा व बसपा इसमें शामिल हो जाएं. लेकिन जोतश्वीर अभी सामने नजर आ रही है. उसमें इसकी गुंजाइश फिलहाल तो नहीं दिख रहा है. सच्चाई ये है की फेडरल फ्रंट भी सौदेबाजी का ही एक मोर्चा होगा. जो चुनावी परिणामों को बाद जरुरतमंद दलों से मोलभाव बड़े स्तर पर कर पाने में सफल हो सकेगा.
क्षेत्रीय दलों की बढ़ती महत्वकाक्षां के बीच कांग्रेस और बीजेपी दोने को इन दलों के साथ सामंजस्य बैठाना बेहद ही मुश्किल होगा. कांग्रेस को ये भी समझना होगा की जिन दलों के साथ वो सत्ता में वापसी के सपने देख रही है. वही दल उसे इस्तेमाल कर अपनी पकड़ मजबूत करने की फिराक में हैं. क्योंकि ममता बनर्जी का ये कहना कि जो पार्टी जहां मजबूत है बाकी के दल मिलकर उसे वहां और मजबूत करें. ऐसे में देखें तो बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा, तमिलनाडू में डीएमके, ओडिशा में बीजद और बिहार में राजद जैसे दलों का दबदबा होगा. तो ऐसे में कांग्रेस कहां लड़ेगी और कितनी सीटें जितेगी ? इसका कड़वा सच तो ये है की भाजपा के खिलाफ लामबंद दल भी कांग्रेस को मजबूत होने देना नहीं चाहते हैं. जबकी बीजेपी की स्थिति कांग्रेस से अलग है. क्योंकि आंध्र प्रदेश, ओडीशा और बंगाल जैसे राज्यों में वो कांग्रेस को पीछे धकेलकर आगे निकलने में सफल रही है. लेकिन जिन राज्यों में भाजपा है. वहां उसके साथी दल बदलते हुए माहौल को देखते हुए उससे फायदा उठाना चाहते हैं. इस बक्त भाजपा को ऐसे कुशल नेता की जरुरत है. जो पूरे देश में साथी दलों से बात कर सके. जिसपर साथी दल भरोसा कर सकें. छोटे दलों का बढ़ता कद कोई नई बात नहीं है. लेकिन उनकी सौदेबाजी का खामियजा देश की जनता को भुगतना पड़ सकता है.